मैंपन का भाव


                                                                                मैं

ये तो सब को पता है की गर्भस्थ शिशु के शरीर की कोशिकाओं को जन्म से लेकर मृत्यु तक देख रेख की और उसमें होने वाली क्षति की पूर्ति करने की व्यवस्था आदि का उत्तरदायी शासक DNA . है ।

किन्तु शरीर का उपयोग करे ? क्यूंकी प्रकर्ति का विधान है की उसकी निर्मित की हुई वस्तुएं उपयोगी होती है । इस द्रष्टि से अनुभव होता है की कोई तो सूक्ष्मसत्ता है जिस हम व्यक्ति का मैं पन कह सकते है  । जो DNA  द्वारा निर्मित शरीर का उपयोग करता है , और यही DNA  की मांग जो कोशिकाओं को पोषण करने के लिए उभरती है । उनकी पूर्ति करने का प्रयास करता है – जैसे भूख लगने पर आहार आदि की खोज करना और उसे प्राप्त करने को विविध कर्म करने का प्रयास करना तथा शरीर को स्वस्थ रखने के लिये जिस पोषक तत्व की शरीर में कमी हो उसके लिये औषधि आदि की व्यवस्था करना आदि । किन्तु मैं पन शरीर के प्रत्येक अंग का उपयोग करते करते शरीर का आसक्त हो जाता है । और अपने को शरीर का मालिक समझने लगता है । उसकी उन्नति , अवनति अथवा हानी होने पर सुख या दुख अनुभव करता है । हाँ यह मैं पन आँखों से देखा नहीं जा सकता पर उसका कार्य प्रत्येक व्यक्ति की अनुभव अवश्य होता है ।
मैं पन का स्वामित्व भाव स्थायी नहीं रहता । उसका स्वामित्व का अभिमान उस समय दूर हो जाता है जब वह शरीर के अंगों का दुरुपयोग कर उन्हें अपनी इच्छानुसार कार्य करने का प्रयास करता है ।

मनलों – वह अपनी गर्दन उपर को करके आकाश को घंटों तक देखना चाहता है । किन्तु वह बस में नहीं कर पाता क्यूकी गर्दन देर तक एक स्थिती में रखने में इतनी दुखने लगती है की उसे विवश होकर गर्दन को आकाश की ओर से हटा कर नीचे की ओर करना पड़ेगी । इस प्रकार इच्छा पर कठोर प्रहार होता है और उसे अनुभव होता है की वास्तव में वो शरीर का स्वामी नहीं है । शरीर का स्वामी तो वो है जिसने मैं की इच्छा से विरुद्ध गर्दन को नीचे करने पर विवश कर दिया । किन्तु यह स्वामी भी आँखों से दिखायी नहीं देता । वास्तव में व्यक्ति के ये दो और भाव है । एक आदेश देने वाला और दूसरा आदेश को माने वाला जो सेवक है । आदेश देने वाला स्वामीभव उन संस्कारों का ही समहू है । जो शरीर को उचित ढंग से कार्य करने के लिये निर्मित हुये है । और आदेशों का पालन करने वाला उन संस्कारों का समूह है । जिन्होने सेवक का आचरण करते –करते अपना अस्तित्व बना लिया है । इसी प्रकार मैं पन के तीन भाव है एक तो मिथ्या अभिमानयुक्त स्वामीभाव  जिसमें गर्भ के संस्कारों के अतिरिक्त विवेक , अविवके सभी के मिश्रित संस्कारों का समावेश है । दूसरा शुद्ध स्वामीभाव जिसके आदेश सभी अनुभूत और विवेक युक्त होते है । तीसरा शुद्ध सेवक भाव जो शुद्ध स्वामीभाव से दिये गये आदेशों को अत्यंत सच्चाई से पालन करता है ।
कभी कभी ऐसा भी अनुभाव होता है की जब व्यक्ति का स्वामी भाव आदेश देता है और सेवक भाव उस आदेश का पालन करता है तब उसे अनुभव होने लगता है की उसका अस्तित्व अलग है । उसकी उपस्थिती में उसके दोनों भाव का यानि सेवक और स्वामी भाव का क्रिया कलाप हुआ है । ऐसी स्थिती होने पर व्यक्ति अपने को साक्षी अनुभव करता है । इस प्रकार मैं पन के चार भाव अनुभव होते है ।

  1-      शरीर पर मिथ्या स्वामित्व का भाव
  2-      स्वामी भाव
  3-      सेवक भाव
  4-      साक्षी भाव

इतना ही नहीं जब व्यक्ति और अधिक विचार करता है की साक्षी भाव का भी वह साक्षी है तो उसके अनंत रूप उसे अनुभव होते है । किन्तु वैवहारिक द्रष्टि से ये चार भाव ही प्रमुख है । विचारणीय है की मैं पन से जब भी व्यक्ति कुछ कम करने को प्रर्वत होता है । तब उसे काम करने के लिये कौन प्रेरित करता है । तब यही अनुभाव होता है । की व्यक्ति को काम करने को विचार ही प्रेरित करते है । क्यूंकी यदि विचार नहीं आयेंगे तो व्यक्ति को कर्म करने की चेष्टा ही नहीं करेगा ।  

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