पूर्ण विकासेच्छु संकल्प का पहला स्तर

पूर्ण विकासेच्छु संकल्प का पहला स्तर





पूर्णता की ओर अग्रसर होने वाला प्राणशक्ति से निकला हुआ संकल्प जब किसी भी माँ के गर्भ में आकर गर्भस्थ भ्रूण के मस्तिष्क में अपना स्थान बना लेता है । तब वह शनैः शनैः अपना विस्तार करने लगता हैं । जिस शक्ति का सहारा लेकर वह विकसित होता हैं । उस शक्ति को आकर्षण शक्ति कहते । जैसे चुम्बक लोह की वस्तु को स्वतः ही अपनी ओर खींचता है वैसे ही आकर्षण शक्ति भी उन विचारों को अपनी ओर आकर्षित करती है । जो स्वतः ही उसकी ओर आकर्षित होते है । पूर्णता की ओर अग्रसर होने वाला या पहला स्तर का संस्कार अपनी शारीरक , मानसिक अथवा भौतिक उन्नति को लिये हुये ही आता है । जिन जिन बातों से उसकी शक्ति बढ़े , उसके परिवार की शक्ति बढ़े , उसकी दैनिक अवशयकताओं की जैसे धन , जन , वैभव , उद्योग , प्रतिष्टा आदि की यथेष्ट पूर्ति हो सके उन्हीं की ओर उसकी उसकी बुद्धि दौड़ती है और उन्हें प्राप्त करने का उससे सतत प्रयास होता है । साथ ही इस प्रथम स्तर वाले व्यक्ति का जन्म जात यह संस्कार भी होता है । की किसी भी काम की पुर्नतार्थ यदि उसे अपने में पर्याप्त बल का अनुभव नहीं होता है तो वह मानव से परे देव शक्ति अथवा परमात्म शक्ति से जैसे भी हो बल प्राप्त करने की याचना करता है । इस दृष्टि से उसकी रुचि पुजा , भजन , प्रार्थना , उपासना आदि की ओर स्वाभाविक होती है , पर होती है सकाम ।

जो कुछ भी वह करता है उसमें उसका स्वार्थ प्रधान होता है । इस प्रकार उसकी पाठ , पुजा , सेवा , अर्चना आदि सभी उपासनाओं में स्वार्थ सिद्धि ही सर्वोपरि होती है । वैसे इस स्तर का व्यक्ति सज्जन होता है । कर्म करने में उत्साह व्यक्त करता है । पर उसके लक्ष्य में सदैव निज़ का हित प्रथम रहता है । उसके द्वारा दूसरों के हितार्थ भी काम होते तो अवश्य है , पर उनके हित के कामों में उसे अपना हित भी अनुभव होता है । संक्षेप में ,इस स्तर के व्यक्ति को सकाम भक्त कहा जा सकता है।

चूँकि इस स्तर का व्यक्ति अपने मन के अनुकूल ही सब काम करना चाहता है और जब वैसा नहीं होता है तब वह अशान्त हो जाता है अतः उसका जीवन अधिकांश में दुखी ही रहता है । क्योंकि प्रकृति के नियमानुसार व्यक्ति का मैंपन जो काम करता है वह व्यक्तिगत विचारों से प्रभावित होता है और व्यक्तिगत विचार बाहरी वातावरण में व्याप्त विचार तरंगों से प्रभावित होते हैं । बाहरी विचार तरंगें अधिकांश में उसके विचारों जैसी विचार तरंगें तो होती नहीं है अतः उसे प्रतिकूलता का ही अधिक सामना करना पड़ता है । साथ ही , यह प्राकृतिक तथ्य भी विचारणीय है की प्रकृति की रचना के अनुसार मैंपन दो प्रकार से कर्म करता है । स्वतन्त्रता पूर्वक तथा विवश होकर परतंत्रता से जैसे स्वतंत्रता पूर्वक हम अपने हाथों को उपर उठा सकते है । किन्तु यदि हम अपनी इच्छानुसार चाहे जब तक हाथ उपर को उठाये रखना चाहें तो वैसे नहीं कर सकते । जब हम माँ जैसा नहीं कर पाते तो सहज ही उदास हो जाते है । ऐसे ही जब हम किसी कार्य की सिद्धि हेतु प्रार्थनाएँ आदि करते करते थक जाते है और वह काम पूरा नहीं हो पाता तब हम निराश हो जाते है और हमारा प्रार्थना में विश्वश नहीं रहता । हम अशान्त हो जाते हैं । तब शांति के लिये फलेच्छा छोड़कर कर्म करने की ओर प्रवर्त्त होने लगते है । हाँ अनुभव यही कहता है की अधिकांश बातें जीवन में हमारी चाही जैसी नहीं होती । अतः फल की इच्छा से काम करने में अधिकतर हमारे हाथ निराशा ही लगती है ।

निराश होते होते हम इसी परिणाम पर पहुँचते है की फलेच्छा छोड़कर काम करने से ही शांति आती है । यदि गर्भस्थ भ्रूण के मस्तिष्क में इस प्रकार सुधार के संस्कार है तब तो कालांतर में व्यक्ति कर्म करने के ढंग में परिवर्तन लाने लगता है अन्यथा प्रकृति के नियमानुसार जब भी परिवर्तन लाने संस्कारों के बीज पड़ने का संयोग उपस्थित होगा तब ही परिवर्तन की ओर व्यक्ति चेष्टा कर सकेगा ।

हाँ पूर्णता की ओर अग्रसर होने वाला प्रबल संस्कार परिवर्तन लाने का अपने में आकर्षण रखता है और समय पर ही सम्हल जाता है तथा फलेच्छा से रहित होकर स्वाभाविक कर्म करने लगता हैं । इस प्रकार अपनी फलेच्छा के पूर्व ढंग को बदलकर निष्काम कर्म करने में प्रवर्त होना पूर्णता की ओर अग्रसर होने वाले संकल्प का द्वितीय स्तर कहलाता है ।  


प्रभु की सच्ची भक्ति

प्रभु की सच्ची भक्ति




जन साधारण की प्रायः यही धारणा होती है की प्रभु का नाम स्मरण , जप , तप , पुजा , पाठ आदि करना ही वास्तव में प्रभु भक्ति है और गृहस्थी के कामकाज में लगे रहना प्रभु भक्ति नहीं हो सकती । यह तो सांसरिक काम है जो मायाजाल में जीव को डाले रहते है । किन्तु विवेकी मैपन पुजा पाठ आदि के कम तथा गृह कार्य दोनों को माया के कार्य कहता है ।

माया त्रिगुणात्मक है । सत्वगुण , रजोगुण , तमोगुण त्रिगुण कहलाते है । पुजा पाठ आदि सत्वगुण के काम है । गृह कार्य आदि रजोगुण के कार्य है तथा जिन कामो के करने से न तो व्यक्ति का हित हो अथवा न अन्य का ही हित हो ऐसे काम तमोगुण के होते है । प्रभु माया ही सृष्टि की उत्पत्ति , पालन और संहार करती है । सृष्टि के समस्त प्राणी इन गुणों के अधीन ही बर्ताव करते है । ये गुण माया के अधीन है जबकि माया के कार्य प्रभुतत्व से प्रभावित होकर सम्पन्न होते है । माया को ही आदि शक्ति कहते है । शक्ति को ही आध्यात्मिक जगत में कुंडलिनी अथवा प्राणशक्ति कहते है । यही शक्ति माँ है । और जिस तत्व से शक्ति को चेतनता प्राप्त होती है उस तत्व को पिता कह सकते है । इस प्रकार सच्ची माता – पिता की भक्ति यही है की हम उनके अदशों का पालन करें । उनके आदेश सदैव प्रत्येक प्राणी के अन्तः से उभरते रहते है । इन आदेशों को हम स्वामी के आदेश कह सकते है आदेशों के पालन करने वाले को सेवक कहते है । अतः हमारा अस्तित्व सेवक का है ।

विचारणीय है की स्वामी उसी सेवक से प्रसन्न रहता है जो उसके काम करने में लगा रहता है । यदि कोई उनके आदेशानुसार काम कुछ नहीं करता केवल उनका नाम ही जपता रहे अथवा पुजा , पाठ आदि द्वारा स्तुति मात्र करता रहे उसे जन साधारण भले ही प्रभु भक्त कहे परंतु प्रभु उसे अपने काम का भक्त नहीं समझेंगे । केवल बातूनी ही कहेंगे जो कुछ समय के लिए पुजा पाठ आदि से अपना मनोरंजन करता रहता है । अस्तु , विवेकी मैपन अपने समस्त कामों को प्रभु के काम समझता है और उन्हें , उन्ही के लिये करता है । हाँ बोलचाल की भाषा में भले ही उन कामों को करते समय वह ये कहता रहे की मैं अपना काम कर रहा हूँ पर मन मीन सदैव स्मरण रखता है की मेरे सब काम प्रभु के ही है । इन्हें करने के लिये मेरा जन्म हुआ है । इस प्रकार जो भी काम किया जाता है , उसे वास्तव में यही कहा जाता है की काम के माध्यम से व्यक्ति द्वारा प्रभु की भक्ति की जा रही है । यही सच्ची प्रभु भक्ति है । 


 प्राण शक्ति का शेष भाग .....

प्राण शक्ति का शेष भाग .....




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आगे ..... 


प्राण शक्ति से सब जुड़े हैं । संकल्प मिश्रित वायु , अग्नि , जल , पृथ्वी , पेड़ की जड़ , तना , मोटी डलियाँ , छोटी डलियाँ , टहनियों से जुड़ा एक पत्ता । विवेचन से स्पष्ट है की प्राण शक्ति ही प्रत्येक पत्ते से लेकर वायुतत्व तक सबकी आधार है । अतः प्रत्येक संकल्प का आधार भी प्राणशक्ति है और प्राणशक्ति के सहारे ही उसका जन्म , उसकी वृद्धि और उसका अन्त होता है । चूँकि वायु जो श्वास के रूप में प्राणीमात्र का आधार है और सर्वत्र व्याप्त है अतः वायु का आधार भूत प्राणीशक्ति को भी सर्वत्र व्याप्त होना चाहिये और उसे सबकी आधार भूत सत्ता कहना सर्वथा उचित है । विज्ञान की दृष्टि से भी अब इसी तथ्य की पुष्टि की जाती हैं । की ऊर्जा ही सब पदार्थों का आधार है । ऊर्जा का ही पर्याय प्राणशक्ति को कहा जा सकता हैं । वैज्ञानिक कहता है की प्रत्येक पदार्थ अणुओं से बना है और अणु परमाणुओं से बना है परमाणु इलेक्ट्रॉन से बना है । इलेक्ट्रॉन बना है प्रोटोन और नूट्रोन से और इनका आधार है ऊर्जा का प्रवाह जिसका विकिरण कभी तरंगों के समान व्यवहार करता है कभी कण के रूप में इस प्रकार ऊर्जा व्याप्त है । पदार्थ में अणु में , परमाणु में , इलेक्ट्रॉन में प्रोटोन और नूट्रोन में । इस दृष्टि कोण से जो पदार्थ हमे दिखता है वह लुप्त हो जाता हैं । और ऊर्जा ही ऊर्जा दिखती है ।
यह कहना असंगत नहीं है की प्राणशक्ति ही सब का आधार है । उसी सत्ता से संकल्प पैदा होते है । उसी सत्ता से अपनी क्षमता के अनुसार जन्म लेते है । वृद्धि करते है और समाप्त होकर नवीन रूप धारण कर लेते है । संक्षेप में  प्रत्येक अस्तित्व का मूल आधार प्राणशक्ति है । इस सब से स्पष्ट है की DNA को शरीर की संचालन व्यवस्था करने की क्षमता प्राणशक्ति ने प्रदान की है । ऐसे ही मैंपन को शरीर के उपयोग करने की क्षमता देने वाली शक्ति प्राणशक्ति ही है । इसी प्रकार प्राणशक्ति के आधार पर ही ईथर में विचार तरंगे सदा विधमान रहती है तथा बाहरी विचार तरंगे प्राणशक्ति के आधार से ही एक एक मस्तिष्क की तरंगों को प्रभावित का शरीर के अंगों को कर्म करने को प्रवृत्त करती है । यहाँ तक तो स्पष्ट समझ में आता है की प्राणशक्ति आधारभूत सत्ता है । और उसी का विस्तार ही विश्व का रूप है जो बनता है बढ़ता है और लुप्त हो कर पुनः नवीन रूप धारण करता है । किन्तु प्राणशक्ति का भी कोई न कोई आधार होना चाहिये । इस तथ्य की प्रत्यक्ष जानकारी अभी तक किसी को उपलव्ध नहीं हो सकी है । किन्तु इस बात को अस्वीकार नहीं किया जा सकता की आधार तो अवश्य होना चाहिये , भले ही उसकी जानकारी मन , बुद्धि से परे ही क्यों न हो । हाँ जितनी भी हमें जानकारी होती जायेगी वो ऊर्जा की बड़ी बहने ही सिद्ध होंगी । मूलाधार फिर भी अद्रश्य बना रहेगा । अतः मूलाधार को सत्ता को ही परमात्मा कहा जाता है जो तर्क से सिद्ध है । हाँ प्राणशक्ति यानि ऊर्जा का अस्तित्व स्पष्ट है जिसकी सत्ता के आधार से उत्पत्ति , सृजन और संहार कार्य होता हैं । इसी प्रकार प्रकृति समस्त कार्य नियमानुसार कर रही है । अब प्रश्न उठता है की क्या प्रत्येक व्यक्ति इस सभी जानकारी पर विचार विमर्स करने को आकर्षित हो सकता है ? इसका उत्तर यही समझ में आता है की प्राणशक्ति से निरन्तर निकालने वाले अनन्त संकल्पों में से जो संकल्प पूर्णता को प्राप्त करने की सामाग्री साथ लेकर आये है उनकी ही इस और रुचि होगी और वे ही धीरे धीरे मंथन करते करते पूर्णता को प्राप्त हो सकते है । पूर्णता की ओर उत्तरोत्तर विकास करने वाले संकल्प भी विभिन्न प्रकार के अनुभव में आते हैं । उनकी शैलियाँ भी भिन्न भिन्न होती हैं । अतः उनके अनेक अनेक स्तर हो सकते है ।
प्राण शक्ति

प्राण शक्ति


                                          प्राण शक्ति             


जैसे जलाशय में बुलबुले उठते रहते है ,जैसे ज्वालामुखी से चिंगारियाँ निकलती रहती है ,जैसे हिमालय में गंगोत्री के मुख द्वार से जल निरंतर प्रबहित होता रहता है । जैसे सूर्य से किरणें सदा प्रसारित होती रहती है । वैसे ही प्राणशक्ति से निरंतर अनंत प्रकार के संकल्प फुरते रहते है । ये संकल्प ही अपनी – अपनी क्षमता के अनुसार अपना विस्तार कर समाप्त होते रहते है और नवीन नवीन संकल्प उनका स्थान लेते रहते है । यह उनका स्वाभाविक क्रम है । यदपि संकल्प अपनी अपनी क्षमता के अनुसार काम करते रहते है । यानी उत्तपन्न होते है वृद्धि करते है और समाप्त हो जाते है । तथापि प्राणशक्ति आधार रूप से समस्त संकल्पों की प्रत्येक क्रिया के साथ सदैव विद्यमान रहती है । जैसे एक व्यक्ति प्राणशक्ति के आधार पर जीवित रहता है वैसे ही व्यक्ति की जीवन लीला के समाप्त होने पर उसके मृत शरीर को पंचभूतों में मिलने की क्रिया भी प्राण-शक्ति के आधार पर होती है ।

जब प्रत्येक हल में आधार प्राणशक्ति है । तो उसे सर्वत्र समान रूप से व्यापक होना ही चाहिये । उदाहरण एक विशाल पीपल के पेड़ को लीजिये ।  उसकी सब से उपर की एक टहनी के एक पत्ते से पूछा जाये की वह किस के आधार पर स्थिर है तो वह यही कहेगा की जिस टेहनी से मैं जुड़ा हूँ उसके आधार से फिर यदि फिर उस टेहनी से पूछा जाये की तेरा आधार क्या है ? तो वह कहेगी की समीपस्थ डाली से ,फिर उस डाली से पूछा जाये की तेरा आधार कौन है तो वह कहेगी की समीपस्थ मोटी डाली से फिर उस मोटी डाली से पूछा जाय तो वह और मोटी डाली की ओर संकेत करेगी । फिर उस ओर मोटी डाली से उसका आधार पूछा जाय तो पेड़ के तने को कहेगी । अब पेड़ के तने से पूछा जाये तो वह कहेगी । अब पेड़ के तने से पूछा जाय तो वह कहेगा की मेरा आधार स्पष्ट तो नहीं दिखता पर आप देखना चाहें तो मेरे आसपास की धरती को खोद कर देखें तो आप देखेंगे की मेरा आधार पेड़ की जड़ है । अब यदि हम विचार करें की जड़ का आधार क्या है ? तो स्पष्ट अनुभव होगा की पृथ्वी ही जड़ का आधार है । इसी प्रकार हमें अनुभव होगा की पृथ्वी का आधार जल तत्व है । जल तत्व का आधार अग्नि है । अग्नि का आधार वायु है और वायु का आधार जो शक्ति है उसे ही प्राणशक्ति कहना चाहिये जिस से संकल्प उत्तपन्न होते रहते है । और यही सबका आधार है ।
शेष कल .................................................................. 
विचार तत्व

विचार तत्व




कोई भी व्यक्ति यदि कभी थोड़ा ध्यान दें तो उसे स्पष्ट अनुभव होगा की उसके मस्तिष्क में निरंतर विचार आते रहते है । कितना ही इन्हें रोका जाये वे चलते ही रहते है । हाँ इतना अवश्य ही की यदि थोड़ी देर तक हम श्वास न लें तो उस अवधि में विचार रुक से जाते है ।

पर जीवन के लिये श्वास लेना अनिवार्य है । तब विचारों का चलता रहना भी अनिवार्य है । सोने पर भी इनका तांता नहीं रुकता , तरह तरह स्वप्न आते ही रहते है । हमारी बेहोशी की हालत में भी हमारे बिना जाने विचारों का आवा गमन होता ही रहता है । क्यूंकी श्वास के साथ विचार आते है । श्वास अति है बाहरी वातावरण से अतः बाहरी वातावरण में यानी ईथर में व्याप्त वायु में विचारों के शब्दों की ध्वन्यात्मक तरंगें विद्यमान होनी चाहिये ।  साथ ही विचार तरंगों का अस्तित्व मस्तिष्क में भी गर्भ होना चाहिये जो श्वास से आयी तरंगों से प्रभावित हो जाती है । हमारे द्वारा बोल – चल में जो भी शब्द निकलते रहते है । उनकी भी ध्वन्यात्मक तरंगें आकाश में व्याप्त होती रहती है । यह क्रम सदा से चलता आ रहा है ।

इन विचार तरंगों के अनेक रूप अनुभव में आते रहते है । पर प्रमुख रूप से चार रूप अधिक व्यवहार में आते है ।

  1.      वे विचार जो अपने साथ उन युक्तियों को लिये होते है , जिनसे विचार पूर्णता को प्राप्त हो सकें ।

  2.      वे विचार जो अपना थोड़ा बहुत अस्तित्व तो रखते है पर पूर्णता की ओर अग्रसर नहीं हो पते । 

  3.      वे विचार जो उभरते तो रहते है पर परतंत्र से होते है और दूसरे सहायक विचारों के योग देने पर ही वे आगे बढ़ते है ।

  4.      वे विचार जो अनर्गल होते है जो अपना अस्तित्व स्थायी नहीं रखते कभी कुछ कभी कुछ आते जाते रहते है ।
इन विचारों से प्रभावित हो कर मैं पन कर्म करने के प्रेरित होता है । जिस प्रकार का विचार उभरता है उसी प्रकार की चेष्टा मैं पन से होती है और उसी के अनुकूल आवश्यकतानुसार मैं पन शरीर के अंगों का उपयोग करता है ।

इन सब बातों से स्पष्ट है की शरीर की संचालन व्यवस्था का उत्तरदायी शासक DNA है।
DNA के निर्मित शरीर का उपयोग मैं पन करता है । मैं पन को कर्म करने के लिये  प्रेरित करने वाले विचार है । बाहरी विचार तरंगें व्यक्ति के मस्तिष्क में विद्यमान विचार विचार तरंगो को प्रभावित करती हैं ।
 तब DNA से निर्मित शरीर के अंगों से तदनुकूल आचरण होता है । अब यह जान लेना भी आवश्यक है की शरीर की संचालन व्यवस्था करने की क्षमता DNA को कौन प्रदान करता है । ऐसे ही शरीर को उपयोग में लाने की मैं पन को कौन शक्ति प्रदान करता है । इसी प्रकार ईथर में विचार तरंगे सदा ही विद्यमान रहती है ,

इसका मूल श्रोत क्या हैं ? साथ ही इन व्याप्त विचार तरंगों के आधार पर यूनिट माइंड को कर्म करने की क्षमता कौन देता है ? इन सब प्रश्नों का एक ही उत्तर हो सकता है की प्राणशक्ति सब को क्षमता देती है ।


 क्यूंकी प्राणशक्ति ही मानव के जीवन की आधार भूतसत्ता है । बिना प्राण के व्यक्ति का जीवन नहीं अतः प्राणशक्ति को सर्वत्र व्याप्त सत्ता होना चाहिये । तभी वह व्यक्ति के सब अंगों की आधार – शक्ति हो सकती है । 
साथ ही व्यक्ति के जन्म से मृत्यु तक इसी की सत्ता सर्वेसर्वा है । भ्रूण गर्भ में इसी सत्ता के आधार से आता है । और जब भ्रूण जन्म लेता है तो जन्म के साथ ही इसी सत्ता का कार्य अनुभव होता है । नवजात शिशु श्वास लेता है और उससे असपष्ट संकल्प उभरते रहते है जिनसे वह हाथ पैर आदि हिलाता है हँसता है , रोता है तथा अनेकों चेष्टयें करता रहता है । यदि प्राण न हो तो भ्रूण जड़वत हो जावेगा । अतः प्राणशक्ति का महत्व सबसे अधिक होना चाहिये ।   
मैंपन का भाव

मैंपन का भाव


                                                                                मैं

ये तो सब को पता है की गर्भस्थ शिशु के शरीर की कोशिकाओं को जन्म से लेकर मृत्यु तक देख रेख की और उसमें होने वाली क्षति की पूर्ति करने की व्यवस्था आदि का उत्तरदायी शासक DNA . है ।

किन्तु शरीर का उपयोग करे ? क्यूंकी प्रकर्ति का विधान है की उसकी निर्मित की हुई वस्तुएं उपयोगी होती है । इस द्रष्टि से अनुभव होता है की कोई तो सूक्ष्मसत्ता है जिस हम व्यक्ति का मैं पन कह सकते है  । जो DNA  द्वारा निर्मित शरीर का उपयोग करता है , और यही DNA  की मांग जो कोशिकाओं को पोषण करने के लिए उभरती है । उनकी पूर्ति करने का प्रयास करता है – जैसे भूख लगने पर आहार आदि की खोज करना और उसे प्राप्त करने को विविध कर्म करने का प्रयास करना तथा शरीर को स्वस्थ रखने के लिये जिस पोषक तत्व की शरीर में कमी हो उसके लिये औषधि आदि की व्यवस्था करना आदि । किन्तु मैं पन शरीर के प्रत्येक अंग का उपयोग करते करते शरीर का आसक्त हो जाता है । और अपने को शरीर का मालिक समझने लगता है । उसकी उन्नति , अवनति अथवा हानी होने पर सुख या दुख अनुभव करता है । हाँ यह मैं पन आँखों से देखा नहीं जा सकता पर उसका कार्य प्रत्येक व्यक्ति की अनुभव अवश्य होता है ।
मैं पन का स्वामित्व भाव स्थायी नहीं रहता । उसका स्वामित्व का अभिमान उस समय दूर हो जाता है जब वह शरीर के अंगों का दुरुपयोग कर उन्हें अपनी इच्छानुसार कार्य करने का प्रयास करता है ।

मनलों – वह अपनी गर्दन उपर को करके आकाश को घंटों तक देखना चाहता है । किन्तु वह बस में नहीं कर पाता क्यूकी गर्दन देर तक एक स्थिती में रखने में इतनी दुखने लगती है की उसे विवश होकर गर्दन को आकाश की ओर से हटा कर नीचे की ओर करना पड़ेगी । इस प्रकार इच्छा पर कठोर प्रहार होता है और उसे अनुभव होता है की वास्तव में वो शरीर का स्वामी नहीं है । शरीर का स्वामी तो वो है जिसने मैं की इच्छा से विरुद्ध गर्दन को नीचे करने पर विवश कर दिया । किन्तु यह स्वामी भी आँखों से दिखायी नहीं देता । वास्तव में व्यक्ति के ये दो और भाव है । एक आदेश देने वाला और दूसरा आदेश को माने वाला जो सेवक है । आदेश देने वाला स्वामीभव उन संस्कारों का ही समहू है । जो शरीर को उचित ढंग से कार्य करने के लिये निर्मित हुये है । और आदेशों का पालन करने वाला उन संस्कारों का समूह है । जिन्होने सेवक का आचरण करते –करते अपना अस्तित्व बना लिया है । इसी प्रकार मैं पन के तीन भाव है एक तो मिथ्या अभिमानयुक्त स्वामीभाव  जिसमें गर्भ के संस्कारों के अतिरिक्त विवेक , अविवके सभी के मिश्रित संस्कारों का समावेश है । दूसरा शुद्ध स्वामीभाव जिसके आदेश सभी अनुभूत और विवेक युक्त होते है । तीसरा शुद्ध सेवक भाव जो शुद्ध स्वामीभाव से दिये गये आदेशों को अत्यंत सच्चाई से पालन करता है ।
कभी कभी ऐसा भी अनुभाव होता है की जब व्यक्ति का स्वामी भाव आदेश देता है और सेवक भाव उस आदेश का पालन करता है तब उसे अनुभव होने लगता है की उसका अस्तित्व अलग है । उसकी उपस्थिती में उसके दोनों भाव का यानि सेवक और स्वामी भाव का क्रिया कलाप हुआ है । ऐसी स्थिती होने पर व्यक्ति अपने को साक्षी अनुभव करता है । इस प्रकार मैं पन के चार भाव अनुभव होते है ।

  1-      शरीर पर मिथ्या स्वामित्व का भाव
  2-      स्वामी भाव
  3-      सेवक भाव
  4-      साक्षी भाव

इतना ही नहीं जब व्यक्ति और अधिक विचार करता है की साक्षी भाव का भी वह साक्षी है तो उसके अनंत रूप उसे अनुभव होते है । किन्तु वैवहारिक द्रष्टि से ये चार भाव ही प्रमुख है । विचारणीय है की मैं पन से जब भी व्यक्ति कुछ कम करने को प्रर्वत होता है । तब उसे काम करने के लिये कौन प्रेरित करता है । तब यही अनुभाव होता है । की व्यक्ति को काम करने को विचार ही प्रेरित करते है । क्यूंकी यदि विचार नहीं आयेंगे तो व्यक्ति को कर्म करने की चेष्टा ही नहीं करेगा ।