स्वप्न विज्ञान

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वैशेषिक दर्शन में स्मृति – ज्ञान को पूर्व संस्कारों से जन्य माना गया है । स्वप्न भी पूर्व संस्कारों से ही होता । आपने आपने विषयों के ग्रहण के उपरांत इंद्रियों से मन जिन जिन विषयों का प्रत्यक्ष अनुभव करता हैं । वही स्वप्न कहलाता है ।

वात , पित्त , और कफ की विषमता से भी स्वप्न होते हैं ।

वात दोष से – आकाश , गगन , प्रथ्वी पर्यटन , भयानक सिंह , व्याघ्र आदि स्वप्न दिखाई देते है । 

पित्त दोष से --- अग्नि प्रवेश , अग्नि ज्वाला , कनक पर्वत ,बिजली आदि देखे जाते हैं ।

कफ दोष से – समुद्र में तैरना , नदी में नहाना , पानी की वर्षा , रजत पर्वतारोहण आदि ।

वेदान्त दर्शन में भी स्वप्न फलादेश के विषय में कहा गया हैं :-

श्रुति स्वप्न के फल को बताती है । जब कोई विशेषा कर्म करते हों और स्वप्न में स्त्री दर्शन होतो उससे अपने कर्म की सफलता माना चईए ।

ज्योतिष शास्त्र के  विद्वान कल्पद्रुम ग्रंथ में स्वप्न सात प्रकार के बताते हैं।

 द्रष्ट , 2. श्रुति  , 3. अनुभूत , 4. प्रार्थित , 5. कल्पित , 6. भाविक , 7. दोषज ।   
1.       जाग्रत अवस्था में देखी हुई वस्तुओं का स्वप्न देखना द्रष्ट कहलाता है ।
2.       प्राचीन या नवीन सुनी हुई बातों को देखना श्रुति कहा जाता है ।
3.       जाग्रत अवस्था में परीक्षित वस्तुओं का देखना अनुभूत स्वप्न होता हैं ।
4.       जाग्रत अवस्था में इच्छा की हुई वस्तुओं का देखना प्रार्थित स्वप्न होता हैं ।
5.       कल्पना की हुई वस्तुओं का देखना कल्पित स्वप्न है ।
6.       देखी सुनी हुई बातों से विलक्षण मंत्राभ्यासादी से जो स्वप्न दिखाई देते है , उन्हें भाविक कहते है ।
7.       वात , कफ , पित्त दोष से जो स्वप्न होते हैं उनको दोषज कहते है ।

शुरू के पांचों स्वप्न ज़्यादातर झूठ होते हैं । अंतिम दोनों प्रकार के स्वप्न सत्य होते हैं ।

आयुर्वेद में स्वप्नविचार  --- वात ,कफ , पित्त दोषो से भिन्न – भिन्न प्रकार के संस्कारों के उदय से स्वप्न देखे जाते हैं । जिन्हें सुश्रुति संहिता के सूत्र के उन्नतिसवें अध्याय में इस प्रकार बताया गया है  है । जो कोई रोगी अपने भाई बंधुओं को रोगी देखता है । - तेल से पुते हुये अपने शरीर को देखता है । ऊँट , सर्प , गधा , सूअर , और भैस से घिरा हुआ दक्षिण दिशा में जाता हुआ देखता है । आदि आदि देखता है । तो रोगी होता हैं ।

लाल रंग का स्वप्न किसी भी प्रकार का हो वह अशुभ ही होता है । केवल लाल कच्चा मांस तथा लाल चन्दन को देखना शुभ होता है । सफ़ेद वर्ण के सभी स्वप्न शुभ होते हैं । तथा कपास , भस्म तथा दही का देखना अशुभ है । काले वर्ण के स्वप्न भी अशुभ है । केवल भूमि , सोना , काला ब्राह्मण , काला देवता और हाथी देखना शुभ है । चरक संहिता के इन्द्रिय स्थान में शुभाशुभ स्वप्नों की गणना सुश्रुत की गणना से मिलती जुलती है ।

वैदिक ग्रंथो में भी स्वप्न के विषय में बहुत विचार किया गया है । अथर्ववेद के 16 , 17 ,18 काण्डों में अनेक सूक्तों में स्पष्ट रूप से स्वप्न का अनिष्टकारी प्रभाव बताकर उससे रक्षा के उपाये बतायें हैं । इनमें कई एक के पाठ ऋग्वेद में भी आये है । अर्ववेद के 16 वें काण्ड के 5 पयार्य सूक्त इस विषय को स्पष्ट करता है 

जब कोई साधक दीक्षा ग्रहण या प्रयोगनुष्टान किसी कार्य सिद्धि के लिये करता है तब उसकी सिद्धि असिद्धि  का ज्ञान स्वप्न मंत्रों के अभ्यास द्वारा कराना तंत्र ग्रन्थों में बताया गया है । उस समय में जिन जिन स्वप्नों का स्वरूप एवं फल जैसा बताया होता है । उसके विचार द्वारा सिद्धि का निर्णय किया जाता है । स्वप्न काल में सिद्ध या देवता के द्वारा प्राप्त मंत्रों को स्वयं सिद्ध माना जाता है । स्वप्नकाल में प्रसादभिमुख देवता का वरदान भी प्राप्त होता है और वह सर्वथा सत्य होता है ।

 शक्ति संगम तंत्र सुन्दरी खण्ड तृतीय पटल में श्री देवीजी ने श्री शिव जी से पूछा की आपने स्वप्न मंत्रों के विषय बताने को पूर्व में कहा था । यदि आप का इस विषय में हमारा अधिकार समझते है तो कृपा कर उसे प्रकट करें । शिवजी ने मंत्रों के अनेक भेद बताने के बाद स्वप्न मंत्रों के भेद और कार्य को इस प्रकार बताया गया है ।

स्वप्न मंत्र तीन चक्रों में विभक्त है । विराट चक्र , तांडव चक्र , और त्रिपुरा चक्र  ।

जिन मंत्रो में नमः पद हो उन्हें विराट चक्र में जानना चाहिए  , अंजन सिद्धि गुटिका ,गुप्ती , आज्ञा सिद्धि को वे प्रदान करते हैं ।  तांडव चक्र के मंत्र  हूं फट  आदि पदों से युक्त होते हैं ।
खड़ग , वेताल सिद्धि , परकाय प्रवेश , चराचर में गति , अणिमादी सिद्धियां उनसे प्राप्त होती है ।
त्रिपुरा चक्र में मंत्र  स्वाहा   पदान्त होते हैं । उनसे सर्व मनोरथ सिद्धि , कलेश का अभाव और पाष्टि सिद्धिश्वर साधक होता हैं । स्वप्न लब्ध मंत्रों में ऋषि छन्द आदि का विनियोग न होने से जप मात्र से ही सिद्धि होती है । या शिव ऋषि गायत्री छन्द चिदरूपिणी देवता ऐसा विनियोग कर लेना चाहिए । कीलक आदि इसमें नहीं होता , स्वप्न मार्ग से सिद्धि होने से इन्हें स्वप्न मंत्र कहते हैं ।।

लिखें में अगर किसी प्रकार की त्रुटि हो गाई हो उसको क्षमा करें तथा आपने विवेक से काम लें । 

 प्राण शक्ति

प्राण शक्ति

            

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जैसे जलाशय में बुलबुले उठते रहते है ,जैसे ज्वालामुखी से चिंगारियाँ निकलती रहती है ,जैसे हिमालय में गंगोत्री के मुख द्वार से जल निरंतर प्रबहित होता रहता है । जैसे सूर्य से किरणें सदा प्रसारित होती रहती है । वैसे ही प्राणशक्ति से निरंतर अनंत प्रकार के संकल्प फुरते रहते है । ये संकल्प ही अपनी – अपनी क्षमता के अनुसार अपना विस्तार कर समाप्त होते रहते है और नवीन नवीन संकल्प उनका स्थान लेते रहते है । यह उनका स्वाभाविक क्रम है । यदपि संकल्प अपनी अपनी क्षमता के अनुसार काम करते रहते है । यानी उत्तपन्न होते है वृद्धि करते है और समाप्त हो जाते है । तथापि प्राणशक्ति आधार रूप से समस्त संकल्पों की प्रत्येक क्रिया के साथ सदैव विद्यमान रहती है । जैसे एक व्यक्ति प्राणशक्ति के आधार पर जीवित रहता है वैसे ही व्यक्ति की जीवन लीला के समाप्त होने पर उसके मृत शरीर को पंचभूतों में मिलने की क्रिया भी प्राण-शक्ति के आधार पर होती है ।

जब प्रत्येक हल में आधार प्राणशक्ति है । तो उसे सर्वत्र समान रूप से व्यापक होना ही चाहिये । उदाहरण एक विशाल पीपल के पेड़ को लीजिये ।  उसकी सब से उपर की एक टहनी के एक पत्ते से पूछा जाये की वह किस के आधार पर स्थिर है तो वह यही कहेगा की जिस टेहनी से मैं जुड़ा हूँ उसके आधार से फिर यदि फिर उस टेहनी से पूछा जाये की तेरा आधार क्या है ? तो वह कहेगी की समीपस्थ डाली से ,फिर उस डाली से पूछा जाये की तेरा आधार कौन है तो वह कहेगी की समीपस्थ मोटी डाली से फिर उस मोटी डाली से पूछा जाय तो वह और मोटी डाली की ओर संकेत करेगी । फिर उस ओर मोटी डाली से उसका आधार पूछा जाय तो पेड़ के तने को कहेगी । अब पेड़ के तने से पूछा जाये तो वह कहेगी । अब पेड़ के तने से पूछा जाय तो वह कहेगा की मेरा आधार स्पष्ट तो नहीं दिखता पर आप देखना चाहें तो मेरे आसपास की धरती को खोद कर देखें तो आप देखेंगे की मेरा आधार पेड़ की जड़ है । अब यदि हम विचार करें की जड़ का आधार क्या है ? तो स्पष्ट अनुभव होगा की पृथ्वी ही जड़ का आधार है । इसी प्रकार हमें अनुभव होगा की पृथ्वी का आधार जल तत्व है । जल तत्व का आधार अग्नि है । अग्नि का आधार वायु है और वायु का आधार जो शक्ति है उसे ही प्राणशक्ति कहना चाहिये जिस से संकल्प उत्तपन्न होते रहते है । और यही सबका आधार है ।
शेष कल .................................................................. 
आर्थिक और व्यवसाय में सफलता के उपाय

आर्थिक और व्यवसाय में सफलता के उपाय



आर्थिक और व्यवसाय में सफलता के  उपाय


तंत्र मे ऐसे बहुत छोटे छोटे उपाय होते है जो  बहुत लाभ कारक होते इन के लिए बस यही कहा जा सकता है की 

                                                "देखन मे छोटे लागे घाव करें गंभीर" 


1.        धन रखने के स्थान पर या तिजोरी में हमेशा लाल वस्त्र बिछाएँ ।

2.       यदि आपके पास धन रुकता नहीं है तो महीने के पहले शुक्रवार को चांदी की डिब्बी में काली हल्दी , नागकेसर व सिंदूर को साथ रखकर भगवती लक्ष्मीजी के चरणो से स्पर्श करवा कर धन रखने के स्थान पर रख दें । फिर इसका प्रभाव देखें ।

3.       संध्या के समय गुरुवार के दिन लोबान की धूनी घर – व्यापार में देने से धन की आवक बढ़ती है ।

4.       भोजन करने से पहले गाय , कुत्ता और कौओ के लिए एकेक रोटी निकाल दें । इस क्रिया से कभी भी आर्थिक समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ेगा ।

5.       यदि शुक्ल पक्ष के प्रथम गुरुवार से तीन गुरुवार तक गरीबों में मीठे तथा पीले चावल बांटे जाए तो शीघ्र ही धन लाभ होने लगेगा ।

6.       यदि आपके आर्थिक कार्य सिद्ध होते – होते रुक जाते हों तो पीले सूत के धागे में सफ़ेद चन्दन के 1 टुकड़े को बांधकर किसी केले के व्रक्ष पर लटका आएं । शीघ्र ही इसका प्रभाव देखने को मिल जाएगा ।

7.       शनिवार के दिन पीपल का एक अखंडित पत्ता तोड़ लें । उसे गंगाजल से धोकर उसके ऊपर हल्दी तथा दही के घोल से अपने दाएं हाथ की अनामिका उंगली से एक वर्ग के भीतर “ ह्री ”
लिख दें । उसे धूप – दीप देखाकर और पत्ता मोड़कर अपने पर्स में रख लें । इसी प्रकार हर शनिवार को पर्स में पत्ता बदलते रहें । तथा पुराना पत्ता घर के बाहर किसी पवित्र स्थान पर डालते रहें । कम से कम 11 शनिवार यह क्रिया करें ।

8.   यदि आप चाहते है की आप के घर में आर्थिक संपन्नता बनी रहे और धन का आगमन कभी न रुके तो सोमवार के दिन श्मशान में स्थित महादेव मंदिर में जाकर दूध और शहद मिलाकर चढ़ाएं ।

9.   घर के मुख्य दरवाजे पर शनिवार के सरसों के तेल का दीपक जलाएँ और दीपक बुझ जाने पर यदि तेल बचा हो , तो पीपल के व्रक्ष पर संध्या के समय चढ़ा दें । इस प्रकार 7 शनिवार करने से धन का अभाव नहीं रहता ।

10. काली बिल्ली की जेर को तिजोरी या गल्ले में रखकर धूप – दीप देते रहने से जीवन में कभी भी रुपया  – पैसा की कमी नहीं रहती ।

11.  कपूर एवं रोली को जलाकर उसकी राख बना लें । यह राख गल्ले में रखें , इससे व्यापार बढेगा ।

12. यदि आपका व्यवसाय कम चल रहा है तो महीने के पहले गुरुवार को पीले कपड़े में काली हल्दी, 11 गोमती चक्र , 1 चांदी का सिक्का और 11 कौड़ियाँ बांधकर 108 बार निम्नलिखित मंत्र का जप कर अपने कार्य स्थल अथवा दुकान आदि के पवित्र स्थान में राख दें ।


13.   चांदी की कटोरी में थोड़ा – सा सूखा धनिया रखकर उसमें चांदी के लक्ष्मी – गणेश की मूर्ति रखें । इस कटोरी को दुकान या व्यवसायिक स्थल से पूर्व दिशा में रख दें तथा प्रतिदिन प्रात: पाँच अगरबत्ती जलाकर इनका पूजन करें । आप का व्यवसाय तेजी से चलने लगेगा ।
सर्वांग उन्नत्ति बीसा यंत्र

सर्वांग उन्नत्ति बीसा यंत्र



प्रभाव :- 

इस यंत्र के प्रभाव सर्वांगीण उन्नत्ति होती है । धारण करने वाले जातक का कोई बुरा नहीं कर पाता और ना ही बुरा करने की सोच पाता है । 


विधि :- 

किसी शुभदिन अष्टगंध की स्याही अनार की कलम से भोजपत्र पर 110 की संख्या में यंत्र लिखें । 108 यंत्र तो आटे की गोलियों में भरकर मछलियों को खिला दें और तांबे या चाँदी ताबीज में बाजू पर धारण करें और गुग्गल की धूप भी दें । 
तारा तंत्र भाग -२

तारा तंत्र भाग -२









चिनाचार क्या है ?
मां भगवती तारा महाविद्या के आचार को चिनाचार कहा जाता है
चीनाचार के उपदेशक भगवान बुद्ध को लोग मानते हैं
किंतु यहां बुद्ध शब्द बुद्धिवादी ज्ञानियों के लिए उपयोग हुआ है जो भगवान शिव का एक रूप है 
चीन आचार का अर्थ कुछ लोग यह निकालते हैं कि चीन देश से आया हुआ आचार चीनाचार  है
परंतु यह गलत जानकारी है चीनाचार का वास्तविक अर्थ है प्राचीन आचार या चीनाचार में देशकाल
परिस्थितियों का कोई विचार नहीं किया जाता है वर्ण वर्ण जाति कुल इत्यादि का भी कोई विचार नहीं किया जाता है
कभी भी साधना की जा सकती है खान-पान आदि में भी कोई विशेष निषेध नहीं है ऐसे ही आचरण को चीनाचार कहते हैं
चीनाचार क्रम में स्नान ,शौच, पूजन , तर्पण आदि क्रियाएं मानसिक ही मानी जाती है
जब समय होगा मन प्रसन्न हो तभी पूजन करना चाहिए भोजन करके बिना स्नान किए किसी भी समय
तारा देवी का भजन करें स्त्रियों में द्वेष ना करें और एकांत में बलि आदि देवें पूजन के स्थान पर महाशंख
अवश्य स्थापित करें तथा स्त्री  से संभोग आदि क्रियाएं करते हुए जप करें उनके द्वारा उच्छिष्ट मदिरा का पान
अवश्य करें चलते-फिरते खाते-पीते किसी भी समय किसी भी दिशा में जप करें स्वेच्छाचार ही तारा तंत्र में प्रशस्त है
जब भी स्त्री को देखें तो उनको मानसिक रूप से प्रणाम करें स्त्रियों की निंदा और उनके लिए कभी भी
गलत शब्दों का प्रयोग ना करें चीनाचार में  स्त्रियां ही प्राण है वही आभूषण है और
वही साधक की सर्वेसर्वा है चीनाचार के साधक को स्त्रियों की रक्षा अवश्य करनी चाहिए 
व्यर्थ में  वीर्य पतन करना व्यर्थ में मदिरापान करना चीनाचार क्रम में अनुचित माना गया है
उत्तेजनावश स्त्री से संभोग करना यह साधक के नहीं पशु के गुण हैं और पशुओं को इस मार्ग से दूर ही रहना चाहिए .

माँ तारा की साधना में चिनाचार का विशेष महत्त्व है

दक्षिणाचार्य और वामाचार्य क्या है ?

  शाक्त मत के मुख्या  दो मार्ग है 

  1. दक्षिणाचार्य ( दक्षिण मार्ग )
  2. वामाचार्य    (  वाम मार्ग )

दक्षिणाचार्य ( दक्षिण मार्ग ) -  दक्षिण मार्ग में विधि विधान का अधिक प्रचलन है दक्षिण मार्ग में सामाजिक परंपराओं और विधियों का पालन करते हुए
जब तप - पूजा - पाठ - संध्या आदि दक्षिण मार्ग  में आते हैं इस मार्ग में जातिगत भेद वर्णाश्रम व्यवस्था
के अतिरिक्त देश काल एवं परिस्थितियों का पूरा ध्यान रखा जाता है
इसी कारण यह दक्षिण मार्ग कहलाता है इस मार्ग को दक्षिण मूर्ति ने उद्घाटित किया था

वामाचार्य ( वाम मार्ग ) - शाक्त मार्ग का दूसरा मार्ग वाम मार्ग है वाम मार्ग का अर्थ प्रतिकूल आचरण ही 
वाम मार्ग है वाम मार्ग में उन चीजों का प्रयोग किया जाता है जिनको  सभ्य समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं है
वाम मार्ग में पंच मकार द्वारा रात्रि में माँ भगवती का पूजा जप आदि का विशेष विधान है
पंच मकार में मांस - मदिरा -मीन -मुद्रा - मैथुन का  प्रयोग किया जाता है
इसमें अस्थि माला ,यह रुद्राक्ष की माला धारण करनी होती है
इससे साधक के भावों में जागृति आ जाती है साधक के अंदर साक्षी भाव का उदय हो जाता है
वह सभी वस्तुओं और जीवो में सम दृष्टि रखता है 

साधना मार्ग में तीन भाव मुख्य है

 पशु भाव - इंद्रियों के वशीभूत होकर अपनी कामनाओं की पूर्ति और सुख के लिए प्रयास करने वाले
  मनुष्य को पशु कहते हैं और इस भाव को पशु भाव कहा जाता है

 वीर भाव- इंद्रियों की आशक्ति को त्याग करके अपने जीवन के मूल उद्देश्य की प्राप्ति के लिए
भय मुक्त होकर इष्ट की प्राप्ति के लिए प्रयास करने वाला वीर कहलाता है और
इस भाव को वीर भाव कहा जाता है इसमें शाक्त  मार्ग के साधक आते हैं

 दिव्य भाव- दिव्य भाव सभी भाव में परम भाव है इस भाव को प्राप्त साधक स्वयं  शिव समान होता है
जो इस सृष्टि को समद्रष्टि से देखता है स्थिर रहता है और सदा ध्यान में रहता है
इसको शिवोहम अवस्था भी कहा जा सकता है . 



जिसकी जितनी बुद्धि होती है वह उतना ही समझने का प्रयास करता है
यह विषय श्रद्धा और समर्पण और  विश्वास का है तर्क वितर्क से इसका कोई संबंध नहीं है
इसलिए अपने विवेक का प्रयोग करें


।। अथ प्रातः कृत्यम् ।।


सर्वप्रथम साधक उठकर गुरु को प्रणाम करें। मानसिक रूप से गुरु का पंचोपचार पूजन करें। सर्वप्रथम ध्यान करें

नीलाम्बरं नीलविलेपयुक्तं शंखादिभूषिततर्नु मुदितं त्रिनेत्रम्। वामांक-पीठस्थितं-नीलशक्ति वन्दामिवीरं करुणानिथानम्।।
मानसोपचार :
लं पृथिव्यात्मकं गन्धं ऐं श्रीं अमुकानन्दनाथ अमुकी देव्यम्बा -
-पादुकां समर्पयामि नमः                                 - कनिष्ठा अँगूठे से 
हं आकाशात्मकं पुष्पं                                    - तर्जनी अंगूठा से 
वं वाय्यवात्मकं पुष्पं                                       - मध्यमा अनामिकाअँगूठा से  
रं तेजसात्मक दीपं                                        - मध्यमा अगूंठा से 
वं अमृतात्मकं नैवेद्यं                                      - अनामिका अँगूठे से 
सं सर्वात्मकं ताम्बूलं                                        - सर्व अँगुलियों से

तत्पश्चात् हृदय से तारा देवी का इस प्रकार ध्यान करें -

खर्वां नीलां विशालाक्षीं पंचमुद्रां विभूषिताम् । कपालकर्तृकाहस्तां खगेन्दीवर-धारिणीम् ।।
व्यालमाला जटाजूटां पीनोन्नत-पयोधराम्। नवयौवन-सम्पूर्णां मदापूर्णित-लोचनाम् ।।



ध्यान करने के पश्चात् साधक अजपा जप का संकल्प करें
निम्नानुसार करें -
ॐ अस्य श्री अजपा मन्त्रस्य हंस ऋषिः अव्यक्ता गायत्री बन्दः परमात्मा देवता है बीज सः शक्तिः सोऽहं कीलकं मोक्षार्थे जपे विनियोगः कहकर जल छोड़
पश्चात् ध्यान करें।

अग्नीसोमगुरु-द्वयं प्रणवकं बिन्दूत्रिनेत्रोज्ज्वलम् । भास्वद्रूपमुखं शिवांघ्रि-युगलं पार्श्वस्थ-सूर्यानलम् ।। उद्यद्भास्कर-कोटि-कोटि-सदृशं हंसं जगद्व्यापिनीम् । शब्दं ब्रह्ममयं हृदयम्बुजपरे नीडे सदासंस्मरेत् ।।

जैसी गुरु परंपरा हो उसी के अनुसार करना चाहिये।

माँ तारा को जप समर्पण करने के पश्चात् गुरु मंत्र का एकाक्षरी मंत्र जाप सामर्थ्य के अनुसार करें।

                    प्रातः कृत्य गुरुक्रम निम्न प्रकार से है -
१. ऐं
२. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं हसखफ्रें हसक्षमलवरयूं सहखफ्रें सहक्षमलवरयीं हंसः सोऽहं हसौः सहौ:  
३. ॐ ऐं ह्रीं श्रीं हसखः हसक्षमलवरयूं सहखफ्रें सहक्षमलवरयीं हंसः सोऽहं स्वाहा 
 ४. ॐ जूं सः कालमूर्ति काल प्रबोधिनि कालातीते कालदायिनि कपालपात्र धारिणि अमरी कुण्डलिनि जूं सः वं वं वं हंसः सोऽहं स्वाहा
५. ॐ ह्रीं जूं सः कालमूर्ति काल प्रबोधिनि कालातीते कालदायिनि कपालपात्र धारिणि मारणि कुण्डलिनि जूं सः वं सोऽहं हंसः स्वाहा ।



जय माँ तारणी
चौतीसा लक्ष्मी प्राप्ति यंत्र

चौतीसा लक्ष्मी प्राप्ति यंत्र



प्रभाव : - 

१ . इस के प्रभाव से लक्ष्मी की प्राप्ति होती है । 
२.  जिस की दुकान धनदा कम चल रहा हो । उस को ये यंत्र अपनी दुकान में स्थापित
करना चाइये । इस के प्रभाव से दुकानदारी चलने लगती है । 

३. जिस के घर में धन का अभाव रहता हो उसको अपने घर में इस यंत्र को स्थापित  करना चाइये । 




विधान :- 

इस यंत्र को अष्टगंध या केशर की स्याही से अनार की कलम द्वारा रवि पुष्य नक्षत्र में निर्माण करना चाइये । 
विधिवध पूजन कर ११ पाठ श्री सूक्त के करने चाइये । गूगल से १०८ आहुति लक्ष्मी मंत्र की देनी चाइये । 

शत्रु नाशक यन्त्र

शत्रु नाशक यन्त्र



इस यंत्र को जो मनुष्य धारण करता हैं । उस मनुष्य का शत्रु उससे शत्रुता करना छोड़ देता हैं


विधान एवं प्रभाव :- 

इस यंत्र को जो मनुष्य धारण करता हैं । उस मनुष्य का शत्रु उससे शत्रुता करना छोड़ देता हैं और अगर नहीं छोड़ता है तो नष्ट हो जाता हैं । तंत्र मंत्र आदि अभिचार का का प्रभाव नहीं पड़ता है । भूत प्रेत बाधा नहीं होती । और मनुष्य जो भी कार्य करता हैं उस में उसको सफलता प्राप्त होती हैं । 

इस यंत्र को शुभ महूर्त मीन अष्टगंध की स्याही से अनार की कलम द्वारा भोजपत्र पर निर्माण करें तथा निर्माण करते वक़्त अपने मुंह में मिस्री रखें । तथा घी का दीपक जलता रहे । 

मंत्र  :-           "   धूं कुरु कुरु फट्  "

आम की लकड़ी पर उपर दिये मंत्र से हवन करें 108 आहुति इस मंत्र की दें । यंत्र को धूपित कर धारण करें । यंत्र अपना प्रभाव तुरंत प्रकट करने लगता हैं । 

                                                      तारा महाविद्या ( तारा तंत्र )

तारा महाविद्या ( तारा तंत्र )

शाक्त संप्रदाय में दस महाविद्याओं का विशेष महत्व रहा है . काली ,तारा,भैरवी,छिन्नमस्तिका,षोडशी ,भुवनेश्वरी ,धूमावती ,बगलामुखी ,मातंगी ,कमला  ये महाविद्यायें अपने सभी साधकों के हर मनोरथ पूर्ण करने में सक्षम है


तारा महाविद्या ( तारा तंत्र )



शाक्त संप्रदाय में दस महाविद्याओं का विशेष महत्व रहा है ।
काली,तारा,भैरवी,छिन्नमस्तिका,षोडशी,भुवनेश्वरी ,धूमावती ,बगलामुखी ,मातंगी ,कमला 

ये महाविद्यायें अपने सभी साधकों के हर मनोरथ पूर्ण करने में सक्षम है 
इन दस महाविध्यों में माँ काली के बाद माँ तारा का ही नाम आता है I
माँ तारा सर्वगुणों से से युक्त त्वरित सिद्धि प्रदान करने वाली महाविद्या है I
अपने साधक को भोग ,मोक्ष देकर संसार से तार देती है इसलिए इसको तारणी भी कहते है I 
माँ काली का साम्राज्य मध्य रात्रि से ब्रह्म काल ( महूर्त ) तक है माँ तारा का ब्रह्म महूर्त से सूर्य उदय का है I
माँ तारा को हिरण्यगर्भा विद्या भी माना जाता है I
संपूर्ण जगत का आधार सूर्य है और सौर मंडल आग्नेय है इसलिए वेदों में इसे हिरण्यमय कहते है
अग्नि को हिरण्य-रेता भी कहा जाता है सूर्य अग्नि से पूर्ण है इसलिए उसे हिरण्यमय कहा गया है
आग्नेय मंडल के केंद्र में ब्रह्म तत्व अवस्तिथ है अतः सौर ब्रह्म को हिरण्यगर्भ कहा जाता है I
हिरण्यगर्भ का प्रादुर्भाव सूर्य से है और सौर केंद्र में प्रतिष्ठित हिरण्यगर्भ की महाशक्ति तारा है I
इसलिए तंत्र में सूर्य की शक्ति तारा और तारा के शिव अक्षोभ्य कहा गया है I

प्रत्यालीढ पदार्पिदध्रि शवहृद् घोराट्टहासापरां। खड्गेन्द्रीवर की खर्पर भुजा हूंकार बीजोद्भवा।।
खर्वानील-विशाल-पिंगल-जटाजूटैक नागैर्युता। जाड्यन्यस्य कपालके त्रिजगतां हन्त्युग्रतारा स्वयम्।।

भगवती तारा के इस स्वरूप का चिंतन में बताया गया है कि भगवती तारा की  चारों भुजाओं पर सर्प लिपटे हुए हैं
और यह शव के हृदय पर बाएँ पैर आगे रखकर सवार हैं
और अट्टहास कर रही है एवं हाथों में क्रमशः  खड्ग कमल कैंची तथा नर कपाल लिए है वह नीलग्रीव् है पिंगल केश है
और उनके विशाल नील जटाओं में नाग लिपटे हुए हैं

अब ध्यान की मीमांसा पर विचार करते हैं   माँ तारा प्रलय काल में विष युक्त वायु के द्वारा ही संसार का संहार करती है
प्रलय काल में वायु दूषित होकर विष युक्त हो जाती है इस विषैलेपन का प्रतीक ही  भुजाओं में लिपटे हुए सर्प हैं
मां भगवती की सत्ता विश्व केंद्र में अवस्थित है प्रलय होने के उपरांत जब जगत श्मशान बन जाता है
और  शव रूप हो जाता है तब भगवती तारा इसी शव रूपी केंद्र पर आरूढ होती है रुद्राग्नि अन्न आहुति के आभाव में
उग्र रूप धारण करती है
और भयानक सांय सांय की ध्वनि होने लगती है वही शब्द तारा का अट्टहास है प्रलय काल में पृथ्वी चंद्र तथा
उसमें रहने वाले सभी प्राणियों का रस उग्र सौर ताप के कारण सूख जाता है
और वहां समस्त रस भगवती उग्रतारा पान करती है समस्त प्राणियों का रस मुख्यतः सर में रहता है
जिसे कपाल कहा जाता है और उसका वर्ण पिंगल है इसलिए भगवती तारा को नीलवर्ण तथा जटाओं को पिंगलवर्ण
कहा गया है भीषण प्रलय काल में जहरीली गैसों का प्रभाव अधिक होता है
इसलिए जटाजूट को नाग रूप में दर्शाया है कमल और कैंची तथा खडग  क्रमशः
चंद्र और पृथ्वी के मध्य रहने वाले प्राणियों के अन्न आदि की सुरक्षा समृद्धता तथा उस समृद्धता \को नष्ट करने वालों
को नष्ट करने के लिए कैंची का संकेत रखा गया है
इस प्रकार विश्व प्रलय तथा विश्व प्रलय से सुरक्षा प्रदान करने वाली भगवती तारा
अपने भक्तों की बुद्धिगत जड़ता का नाश करते हुये धर्म , अर्थ ,काम और मोक्ष प्रदान करती है ।
अंत समय मे अपने मे समाहित कर ले ऐसी कामना की गई है । 
माँ तारा की साधना से साधक को समस्त ब्रह्मांड का ज्ञान और उसका रहस्य प्राप्त होता है । 

माँ तारा के मुख्य तीन रूपों का उल्लेख मिलता है । 

1 - नीलसरस्वती 
2 - एकजटा
3 - उग्र तारा 

बौद्ध तंत्र मे तारा और कई भेद है उस मे से कुछ भेद रूपों का उल्लेख जहां मे कर रहा हूँ । 

  1. स्पर्श तारा 
  2. चिंतामणि तारा 
  3. सिद्धि जटा 
  4. उग्र जटा 
  5. हंस तारा 
  6. निर्वाणकला 
  7. महानीला
  8. नीलशंभव तारा 

माँ तारा की साधना मे कुछ देवी देवताओं की साधना करना अनिवार्य है । 
माँ तारा के शिव अक्षोभ्य है 
गणेश उच्छिष्ट गणेश 
योगनि और बटुक भैरव का पूजन भी साथ किया जाता है । 
माँ तारा के शिव और गणेश की साधना के बिना सफलता प्राप्त नहीं होती 

आज लेख माँ तारा पर यही तक है । अगले लेख मे माँ तारा की साधना पर चर्चा करेंगे । 
जैसे माँ तारा की साधना चिनाचार से की जाती है । 

चीनाचार क्या है ?
दक्षिणाचार और वामाचार क्या ?
भाव क्या है ? 
प्रात: कृत्य क्या है ?

ये सब जाने के लिए अगली पोस्ट अवश्य पढ़ें 

तारा महाविध्या ( तारा तंत्र भाग -2 )