तारा महाविद्या ( तारा तंत्र )
शाक्त संप्रदाय में दस महाविद्याओं का विशेष महत्व रहा है ।
काली,तारा,भैरवी,छिन्नमस्तिका,षोडशी,भुवनेश्वरी ,धूमावती ,बगलामुखी ,मातंगी ,कमला
काली,तारा,भैरवी,छिन्नमस्तिका,षोडशी,भुवनेश्वरी ,धूमावती ,बगलामुखी ,मातंगी ,कमला
ये महाविद्यायें अपने सभी साधकों के हर मनोरथ पूर्ण करने में सक्षम है
इन दस महाविध्यों में माँ काली के बाद माँ तारा का ही नाम आता है I
माँ तारा सर्वगुणों से से युक्त त्वरित सिद्धि प्रदान करने वाली महाविद्या है I
अपने साधक को भोग ,मोक्ष देकर संसार से तार देती है इसलिए इसको तारणी भी कहते है I
माँ तारा सर्वगुणों से से युक्त त्वरित सिद्धि प्रदान करने वाली महाविद्या है I
अपने साधक को भोग ,मोक्ष देकर संसार से तार देती है इसलिए इसको तारणी भी कहते है I
माँ काली का साम्राज्य मध्य रात्रि से ब्रह्म काल ( महूर्त ) तक है माँ तारा का ब्रह्म महूर्त से सूर्य उदय का है I
माँ तारा को हिरण्यगर्भा विद्या भी माना जाता है I
संपूर्ण जगत का आधार सूर्य है और सौर मंडल आग्नेय है इसलिए वेदों में इसे हिरण्यमय कहते है
अग्नि को हिरण्य-रेता भी कहा जाता है सूर्य अग्नि से पूर्ण है इसलिए उसे हिरण्यमय कहा गया है
आग्नेय मंडल के केंद्र में ब्रह्म तत्व अवस्तिथ है अतः सौर ब्रह्म को हिरण्यगर्भ कहा जाता है I
हिरण्यगर्भ का प्रादुर्भाव सूर्य से है और सौर केंद्र में प्रतिष्ठित हिरण्यगर्भ की महाशक्ति तारा है I
इसलिए तंत्र में सूर्य की शक्ति तारा और तारा के शिव अक्षोभ्य कहा गया है I
अग्नि को हिरण्य-रेता भी कहा जाता है सूर्य अग्नि से पूर्ण है इसलिए उसे हिरण्यमय कहा गया है
आग्नेय मंडल के केंद्र में ब्रह्म तत्व अवस्तिथ है अतः सौर ब्रह्म को हिरण्यगर्भ कहा जाता है I
हिरण्यगर्भ का प्रादुर्भाव सूर्य से है और सौर केंद्र में प्रतिष्ठित हिरण्यगर्भ की महाशक्ति तारा है I
इसलिए तंत्र में सूर्य की शक्ति तारा और तारा के शिव अक्षोभ्य कहा गया है I
प्रत्यालीढ पदार्पिदध्रि शवहृद् घोराट्टहासापरां। खड्गेन्द्रीवर की खर्पर भुजा हूंकार बीजोद्भवा।।
खर्वानील-विशाल-पिंगल-जटाजूटैक नागैर्युता। जाड्यन्यस्य कपालके त्रिजगतां हन्त्युग्रतारा स्वयम्।।
खर्वानील-विशाल-पिंगल-जटाजूटैक नागैर्युता। जाड्यन्यस्य कपालके त्रिजगतां हन्त्युग्रतारा स्वयम्।।
भगवती तारा के इस स्वरूप का चिंतन में बताया गया है कि भगवती तारा की चारों भुजाओं पर सर्प लिपटे हुए हैं
और यह शव के हृदय पर बाएँ पैर आगे रखकर सवार हैं
और अट्टहास कर रही है एवं हाथों में क्रमशः खड्ग कमल कैंची तथा नर कपाल लिए है वह नीलग्रीव् है पिंगल केश है
और उनके विशाल नील जटाओं में नाग लिपटे हुए हैं
और यह शव के हृदय पर बाएँ पैर आगे रखकर सवार हैं
और अट्टहास कर रही है एवं हाथों में क्रमशः खड्ग कमल कैंची तथा नर कपाल लिए है वह नीलग्रीव् है पिंगल केश है
और उनके विशाल नील जटाओं में नाग लिपटे हुए हैं
अब ध्यान की मीमांसा पर विचार करते हैं माँ तारा प्रलय काल में विष युक्त वायु के द्वारा ही संसार का संहार करती है
प्रलय काल में वायु दूषित होकर विष युक्त हो जाती है इस विषैलेपन का प्रतीक ही भुजाओं में लिपटे हुए सर्प हैं
मां भगवती की सत्ता विश्व केंद्र में अवस्थित है प्रलय होने के उपरांत जब जगत श्मशान बन जाता है
और शव रूप हो जाता है तब भगवती तारा इसी शव रूपी केंद्र पर आरूढ होती है रुद्राग्नि अन्न आहुति के आभाव में
उग्र रूप धारण करती है
और भयानक सांय सांय की ध्वनि होने लगती है वही शब्द तारा का अट्टहास है प्रलय काल में पृथ्वी चंद्र तथा
उसमें रहने वाले सभी प्राणियों का रस उग्र सौर ताप के कारण सूख जाता है
और वहां समस्त रस भगवती उग्रतारा पान करती है समस्त प्राणियों का रस मुख्यतः सर में रहता है
जिसे कपाल कहा जाता है और उसका वर्ण पिंगल है इसलिए भगवती तारा को नीलवर्ण तथा जटाओं को पिंगलवर्ण
कहा गया है भीषण प्रलय काल में जहरीली गैसों का प्रभाव अधिक होता है
इसलिए जटाजूट को नाग रूप में दर्शाया है कमल और कैंची तथा खडग क्रमशः
चंद्र और पृथ्वी के मध्य रहने वाले प्राणियों के अन्न आदि की सुरक्षा समृद्धता तथा उस समृद्धता \को नष्ट करने वालों
को नष्ट करने के लिए कैंची का संकेत रखा गया है
इस प्रकार विश्व प्रलय तथा विश्व प्रलय से सुरक्षा प्रदान करने वाली भगवती तारा
अपने भक्तों की बुद्धिगत जड़ता का नाश करते हुये धर्म , अर्थ ,काम और मोक्ष प्रदान करती है ।
अंत समय मे अपने मे समाहित कर ले ऐसी कामना की गई है ।
प्रलय काल में वायु दूषित होकर विष युक्त हो जाती है इस विषैलेपन का प्रतीक ही भुजाओं में लिपटे हुए सर्प हैं
मां भगवती की सत्ता विश्व केंद्र में अवस्थित है प्रलय होने के उपरांत जब जगत श्मशान बन जाता है
और शव रूप हो जाता है तब भगवती तारा इसी शव रूपी केंद्र पर आरूढ होती है रुद्राग्नि अन्न आहुति के आभाव में
उग्र रूप धारण करती है
और भयानक सांय सांय की ध्वनि होने लगती है वही शब्द तारा का अट्टहास है प्रलय काल में पृथ्वी चंद्र तथा
उसमें रहने वाले सभी प्राणियों का रस उग्र सौर ताप के कारण सूख जाता है
और वहां समस्त रस भगवती उग्रतारा पान करती है समस्त प्राणियों का रस मुख्यतः सर में रहता है
जिसे कपाल कहा जाता है और उसका वर्ण पिंगल है इसलिए भगवती तारा को नीलवर्ण तथा जटाओं को पिंगलवर्ण
कहा गया है भीषण प्रलय काल में जहरीली गैसों का प्रभाव अधिक होता है
इसलिए जटाजूट को नाग रूप में दर्शाया है कमल और कैंची तथा खडग क्रमशः
चंद्र और पृथ्वी के मध्य रहने वाले प्राणियों के अन्न आदि की सुरक्षा समृद्धता तथा उस समृद्धता \को नष्ट करने वालों
को नष्ट करने के लिए कैंची का संकेत रखा गया है
इस प्रकार विश्व प्रलय तथा विश्व प्रलय से सुरक्षा प्रदान करने वाली भगवती तारा
अपने भक्तों की बुद्धिगत जड़ता का नाश करते हुये धर्म , अर्थ ,काम और मोक्ष प्रदान करती है ।
अंत समय मे अपने मे समाहित कर ले ऐसी कामना की गई है ।
माँ तारा की साधना से साधक को समस्त ब्रह्मांड का ज्ञान और उसका रहस्य प्राप्त होता है ।
माँ तारा के मुख्य तीन रूपों का उल्लेख मिलता है ।
1 - नीलसरस्वती
2 - एकजटा
3 - उग्र तारा
बौद्ध तंत्र मे तारा और कई भेद है उस मे से कुछ भेद रूपों का उल्लेख जहां मे कर रहा हूँ ।
- स्पर्श तारा
- चिंतामणि तारा
- सिद्धि जटा
- उग्र जटा
- हंस तारा
- निर्वाणकला
- महानीला
- नीलशंभव तारा
माँ तारा की साधना मे कुछ देवी देवताओं की साधना करना अनिवार्य है ।
माँ तारा के शिव अक्षोभ्य है
गणेश उच्छिष्ट गणेश
योगनि और बटुक भैरव का पूजन भी साथ किया जाता है ।
माँ तारा के शिव और गणेश की साधना के बिना सफलता प्राप्त नहीं होती
आज लेख माँ तारा पर यही तक है । अगले लेख मे माँ तारा की साधना पर चर्चा करेंगे ।
जैसे माँ तारा की साधना चिनाचार से की जाती है ।
चीनाचार क्या है ?
दक्षिणाचार और वामाचार क्या ?
भाव क्या है ?
प्रात: कृत्य क्या है ?
ये सब जाने के लिए अगली पोस्ट अवश्य पढ़ें