पूर्ण विकासेच्छु संकल्प का पहला स्तर





पूर्णता की ओर अग्रसर होने वाला प्राणशक्ति से निकला हुआ संकल्प जब किसी भी माँ के गर्भ में आकर गर्भस्थ भ्रूण के मस्तिष्क में अपना स्थान बना लेता है । तब वह शनैः शनैः अपना विस्तार करने लगता हैं । जिस शक्ति का सहारा लेकर वह विकसित होता हैं । उस शक्ति को आकर्षण शक्ति कहते । जैसे चुम्बक लोह की वस्तु को स्वतः ही अपनी ओर खींचता है वैसे ही आकर्षण शक्ति भी उन विचारों को अपनी ओर आकर्षित करती है । जो स्वतः ही उसकी ओर आकर्षित होते है । पूर्णता की ओर अग्रसर होने वाला या पहला स्तर का संस्कार अपनी शारीरक , मानसिक अथवा भौतिक उन्नति को लिये हुये ही आता है । जिन जिन बातों से उसकी शक्ति बढ़े , उसके परिवार की शक्ति बढ़े , उसकी दैनिक अवशयकताओं की जैसे धन , जन , वैभव , उद्योग , प्रतिष्टा आदि की यथेष्ट पूर्ति हो सके उन्हीं की ओर उसकी उसकी बुद्धि दौड़ती है और उन्हें प्राप्त करने का उससे सतत प्रयास होता है । साथ ही इस प्रथम स्तर वाले व्यक्ति का जन्म जात यह संस्कार भी होता है । की किसी भी काम की पुर्नतार्थ यदि उसे अपने में पर्याप्त बल का अनुभव नहीं होता है तो वह मानव से परे देव शक्ति अथवा परमात्म शक्ति से जैसे भी हो बल प्राप्त करने की याचना करता है । इस दृष्टि से उसकी रुचि पुजा , भजन , प्रार्थना , उपासना आदि की ओर स्वाभाविक होती है , पर होती है सकाम ।

जो कुछ भी वह करता है उसमें उसका स्वार्थ प्रधान होता है । इस प्रकार उसकी पाठ , पुजा , सेवा , अर्चना आदि सभी उपासनाओं में स्वार्थ सिद्धि ही सर्वोपरि होती है । वैसे इस स्तर का व्यक्ति सज्जन होता है । कर्म करने में उत्साह व्यक्त करता है । पर उसके लक्ष्य में सदैव निज़ का हित प्रथम रहता है । उसके द्वारा दूसरों के हितार्थ भी काम होते तो अवश्य है , पर उनके हित के कामों में उसे अपना हित भी अनुभव होता है । संक्षेप में ,इस स्तर के व्यक्ति को सकाम भक्त कहा जा सकता है।

चूँकि इस स्तर का व्यक्ति अपने मन के अनुकूल ही सब काम करना चाहता है और जब वैसा नहीं होता है तब वह अशान्त हो जाता है अतः उसका जीवन अधिकांश में दुखी ही रहता है । क्योंकि प्रकृति के नियमानुसार व्यक्ति का मैंपन जो काम करता है वह व्यक्तिगत विचारों से प्रभावित होता है और व्यक्तिगत विचार बाहरी वातावरण में व्याप्त विचार तरंगों से प्रभावित होते हैं । बाहरी विचार तरंगें अधिकांश में उसके विचारों जैसी विचार तरंगें तो होती नहीं है अतः उसे प्रतिकूलता का ही अधिक सामना करना पड़ता है । साथ ही , यह प्राकृतिक तथ्य भी विचारणीय है की प्रकृति की रचना के अनुसार मैंपन दो प्रकार से कर्म करता है । स्वतन्त्रता पूर्वक तथा विवश होकर परतंत्रता से जैसे स्वतंत्रता पूर्वक हम अपने हाथों को उपर उठा सकते है । किन्तु यदि हम अपनी इच्छानुसार चाहे जब तक हाथ उपर को उठाये रखना चाहें तो वैसे नहीं कर सकते । जब हम माँ जैसा नहीं कर पाते तो सहज ही उदास हो जाते है । ऐसे ही जब हम किसी कार्य की सिद्धि हेतु प्रार्थनाएँ आदि करते करते थक जाते है और वह काम पूरा नहीं हो पाता तब हम निराश हो जाते है और हमारा प्रार्थना में विश्वश नहीं रहता । हम अशान्त हो जाते हैं । तब शांति के लिये फलेच्छा छोड़कर कर्म करने की ओर प्रवर्त्त होने लगते है । हाँ अनुभव यही कहता है की अधिकांश बातें जीवन में हमारी चाही जैसी नहीं होती । अतः फल की इच्छा से काम करने में अधिकतर हमारे हाथ निराशा ही लगती है ।

निराश होते होते हम इसी परिणाम पर पहुँचते है की फलेच्छा छोड़कर काम करने से ही शांति आती है । यदि गर्भस्थ भ्रूण के मस्तिष्क में इस प्रकार सुधार के संस्कार है तब तो कालांतर में व्यक्ति कर्म करने के ढंग में परिवर्तन लाने लगता है अन्यथा प्रकृति के नियमानुसार जब भी परिवर्तन लाने संस्कारों के बीज पड़ने का संयोग उपस्थित होगा तब ही परिवर्तन की ओर व्यक्ति चेष्टा कर सकेगा ।

हाँ पूर्णता की ओर अग्रसर होने वाला प्रबल संस्कार परिवर्तन लाने का अपने में आकर्षण रखता है और समय पर ही सम्हल जाता है तथा फलेच्छा से रहित होकर स्वाभाविक कर्म करने लगता हैं । इस प्रकार अपनी फलेच्छा के पूर्व ढंग को बदलकर निष्काम कर्म करने में प्रवर्त होना पूर्णता की ओर अग्रसर होने वाले संकल्प का द्वितीय स्तर कहलाता है ।  



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